पीले टेंट का ढाबा – Sach Pass Blog Part-1
Travel के समय कई बार ऐसा मौका आता है जब आप किसी बीहड़ इलाके में पहुँच जाते हैं. जहाँ मुश्किल से एक-दो छोटे टेंटनूमा ढाबे होते हैं. ऐसे ही एक बार मैं हिमाचल प्रदेश के साच-पास (Sach Pass) से होकर पांगी की ओर जा रही थी जब एक टेंटनूमा ढाबे पर बस रुकी. दूर-दूर तक पहाड़ और सिर्फ एक पीले टेंट का ढाबा. सभी बस से उतर कर ढाबे की ओर बढ़ें. अंदर एक अधेड़ उम्र का जोड़ा जिसकी वो दूकान थी. कुछ दस-पांच कुर्सियां, एक बड़ा टेबल जिसपर चूल्हा, कुछ बर्तन, मैगी के पैकेट, पीछे रस्सी पर नमकीन-चिप्स लटक रही थीं. किसी ने नमकीन खरीदी, किसी ने सिगरेट सुलगाया, कोई मैगी का आर्डर देकर बाहर वादियों के साथ फोटो खिचाने निकल गया तो कोई चावल-राजमा खाने बैठ गया. चावल-राजमा लगभग हर पहाड़ी ढाबे पर आपको मिल जायेगा. मुझे राजमा पसंद नहीं तो मैंने मैगी का आप्शन चुना.
बस से लगभग 15 लोग उतरे थें जिनमें से 7 मैगी के आर्डर थें. ऑर्डर पूरा होने में समय लगता इसलिए मैं भी वादियों से बातें करने और याद के लिए फोटो खीचने निकल गई. ढाबे से मुश्किल से २ मिनट के पैदल रास्ते पर एक झरना था. देख कर मन खुश हो गया. वो मेरा पहला सफ़र था पहाड़ों की तरफ. तो इतने पहाड़, इतनी करीब से साफ नदियाँ और इतने सारे झरने देख कर अपने दिल्लीवासी होने पर अफ़सोस हो रहा था.
सुबह 5 बजे चंबा से बस निकली थी मतलब खाना तो रात का ही खाया हुआ था तो फोटो लेते हुए पेट से आवाज़ें आने लगी थी. कुछ दस-बारह मिनट बाद ढाबे के अंकल ने बाहर आकर तेज़ आवाज़ में वहां की लोकल भाषा में कुछ कहा जो समझ तो नहीं आया लेकिन ये पता चल गया कि वो बता रहे हैं कि मैगी बन गया है. मैं तुरंत टेंट के अंदर घुसी. जिन लोगों ने चावल-राजमा लिया था वो खा कर उठ चुके थें अब हम मैगी वालों की बारी थी बैठने की. सो मैनें बाहर ही रखी एक कुर्सी पर कब्ज़ा किया. अंकल ने एक प्लेट में मैगी के साथ प्लास्टिक की चम्मच दी. बाहर सामने पहाड़, हाथ में गर्म-गर्म मैगी और शहरी जीवन की कोई चिंता नहीं. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे मुझे आज ही मोक्ष की प्राप्ति होने वाली है. मैंने मैगी खाना शुरू किया. उसका स्वाद मेरे हाथ के मैगी के स्वाद से थोड़ा ही ख़राब था लेकिन वो पेट और मन दोनों को भरने वाला था.
जब मेरा खाना हो गया और पैसे देने अंकल-अंटी के पास गई तो उनसे बात किये बिना रह नहीं पाई. और सफर पर आने का मतलब ही क्या अगर लोकल लोगों से बात नहीं की तो. पूछने पर पता चला कि यहाँ से करीब 1 घंटे की दूरी पर पहाड़ी की तराई में कहीं रहते हैं ये लोग और रोज पैदल ही आना जाता होता है. जब बर्फ पड़ती है खासतौर पर दिसम्बर और जनवरी के महीने में जब साच-पास बंद कर दिया जाता है क्योंकि पूरा रास्ता बर्फ की मोटी परत से ढक जाता है तब पूरे दो महीने के लिए ये लोग अपने घरों में ही रखते हैं, न रोजगार का कोई साधन न शहर से कोई कनेक्टिविटी. ऐसे वक़्त के लिए राशन पानी का इंतजाम इसी मौसम में शुरू हो जाता है.
अब जब सबका खाना हो गया तो चलने की बारी थी. मैं यहाँ के लोगों की मुश्किलों का सोचते हुए अपनी सीट पर आकर बैठ गई. गाड़ी चल पड़ी जिसमें ड्रावर ने तेज गाना चला रखा था
शिमले दी राहें, चम्बा कितनी इक दूर?’.
Bahot khub…plz keep writing!!