बचपन की वो सुबहें: गाँव का नज़ारा और दिल को छू लेने वाली यादें
हमारी ज़िंदगी में कुछ ऐसे पल होते हैं जो समय के साथ धुंधले नहीं होते, बल्कि उम्र बढ़ने के साथ और भी गहरे रंग भर देते हैं। बचपन की यादें भी कुछ ऐसी ही होती हैं—सीधी, सच्ची और बेफ़िक्र।
आज की इस भाग-दौड़ वाली ज़िंदगी में, जब मैं अपने मोबाइल और लैपटॉप के बीच फँसी रहती हूँ, तो अचानक एक तस्वीर नज़र आती है—गाँव के किनारे, एक नाई किसी बुज़ुर्ग का बाल काट रहा है, पास में बँधी एक भैंस, पीछे से आती सुबह की धूप और हवा में घुली मिट्टी की महक। इस तस्वीर ने मुझे सीधा खींचकर मेरे बचपन के उन दिनों में पहुँचा दिया, जहाँ न शोर था, न ट्रैफ़िक का हॉर्न, बस चिड़ियों की चहचहाहट और बैलों की घंटियों की आवाज़।
गाँव का सुकूनभरा सवेरा
गाँव की सुबह किसी कविता से कम नहीं होती। सूरज की पहली किरण जैसे ही खेतों पर गिरती है, ओस की बूँदें मोतियों की तरह चमक उठती हैं। घर के आँगन में नानी चूल्हे पर चाय बना रही होती, और नाना खेतों की तरफ़ जाने की तैयारी कर रहे होते। आस-पास दूधवालों की आवाज़ें, गली में खेलते बच्चे, और कहीं दूर से आती मंदिर की घंटियों की धुन—ये सब मिलकर एक ऐसी धुन बनाते थे, जिसे आज भी सुनने को दिल तरस जाता है।
नाई की चौपाल
गाँव में बाल कटवाना भी एक अलग अनुभव होता था। नाई के पास कोई सैलून नहीं होता, बस एक लकड़ी की कुर्सी, एक छोटा सा आईना, और बाल काटने का पुराना लेकिन भरोसेमंद औज़ार। नाई का काम सिर्फ़ बाल काटना ही नहीं था, बल्कि वो गाँव की ताज़ा ख़बरों का सबसे बड़ा स्रोत भी होता था।
जब कोई बाल कटवा रहा होता, तो बाकी लोग पास बैठकर खेत, मौसम, फसल और गाँव की बातों पर चर्चा करते। ये बाल कटाने का समय सिर्फ़ grooming का नहीं, बल्कि bonding का होता था।
मुझे याद है, बचपन में मामाजी के साथ बैठकर नाई की दुकान (या कहें खुली चौपाल) पर कितनी कहानियाँ सुनी थीं—किसान के किस्से, पुरानी शादियों के किस्से, और कभी-कभी पुरखों की वीरता की बातें।
भैंस और गाँव का रिश्ता
तस्वीर में खड़ी भैंस सिर्फ़ एक जानवर नहीं, बल्कि गाँव की अर्थव्यवस्था और भावनाओं का हिस्सा होती है।
गाँव में भैंस घर की सदस्य जैसी होती है—सुबह-सुबह उसे चारा डालना, पानी पिलाना, और फिर दूध दुहना, ये सब रोज़मर्रा की दिनचर्या का हिस्सा था। बच्चों को भैंस के पास जाने का बड़ा शौक होता, कभी उसकी पीठ पर बैठने की कोशिश, तो कभी उसकी पूँछ पकड़कर शरारत करना।
भैंस के बिना गाँव का जीवन अधूरा लगता था, क्योंकि दूध से लेकर दही, मक्खन और घी तक, सब तो उसी से आता था।
नहर किनारे की दोपहरें
गाँव का ज़िक्र हो और नहर या तालाब का नाम न आए, ये तो हो ही नहीं सकता। खेतों के बीच बहती नहर, जिसकी ठंडी और साफ़ पानी की धारा गर्मी में राहत देती थी।
बच्चे नहर में छलाँग लगाकर नहाते समय न साबुन की चिंता करते थे, न किसी fancy shampoo की ज़रूरत—बस पानी, मस्ती और दोस्तों की हँसी।
गाँव की सादगी और अपनापन
शहरों में जहाँ लोग पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते, गाँव में हर कोई एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़ा होता था।
अगर किसी के घर मेहमान आए हों, तो आस-पड़ोस के लोग बिना बुलाए मदद को आ जाते। शादी, त्योहार या किसी का दुख—गाँव में ये सब मिलकर ही मनाया जाता। यही अपनापन, यही जुड़ाव शहरों में कहीं खो गया है।
बचपन के खेल
उस समय वीडियो गेम या मोबाइल नहीं थे, लेकिन खेलों की कमी नहीं थी—कबड्डी, गिल्ली-डंडा, लगोरी, पतंगबाज़ी और रस्साकशी।
दोपहर की धूप में खेत के पेड़ के नीचे बैठकर अमिया (कच्चा आम) खाना, या खेतों में छुपन-छुपाई खेलना—ये सब यादें अब सिर्फ़ दिल में ही रह गई हैं।
आज और तब का फ़र्क
आज जब मैं मॉल या कैफ़े में बैठा चाय पीती हूँ, तो मुझे गाँव की मिट्टी की महक वाली चाय याद आती है।
शहर ने हमें सुविधा तो दी, लेकिन सुकून और रिश्तों की गर्माहट कहीं पीछे छूट गई।
फिर से उस माहौल को जीने की चाह
शायद यही वजह है कि आज भी जब भी मौका मिलता है, मैं गाँव चली जाती हूँ— हकीकत में न सही तस्वीरों के माध्यम से. किसलिए? फिर से वही सुबह की ठंडी हवा महसूस करने, वही मिट्टी की महक लेने, और वही अपने पुरखों से मिलने।
गाँव का जीवन भले ही सादा हो, लेकिन वहाँ की खुशियाँ असली और दिल से जुड़ी होती हैं।
अंत में, अगर आपने अपना बचपन गाँव में बिताया है, तो ये तस्वीर और ये कहानी आपको भी ज़रूर अपने बचपन में ले गई होगी।
वो नाई की चौपाल, वो भैंस का धीमे-धीमे चारा खाना, वो मिट्टी की खुशबू—ये सब हमारे अंदर कहीं न कहीं ज़िंदा हैं, बस हमें उन्हें याद करने का एक बहाना चाहिए।
ज़िंदगी चाहे जितनी भी बदल जाए, बचपन की यादें हमेशा ताज़ी रहती हैं—क्योंकि वो हमारे दिल के सबसे प्यारे कोनों में बसी होती हैं।
ऐसी ही एक और कहानी मैंने संझा कि है अपने एक सफ़र की- पांगी के सफ़र की. वह भी ज़रूर पढ़ें और कमेंट करें.